किसान-कमेरों की आज़ादी के योद्धा सर छोटूराम चौधरी


किसान-कमेरों की आज़ादी के योद्धा सर छोटूराम चौधरी

हरियाणा में झज्जर के छोटे से गाँव गढ़ी सांपला में 24 नवंबर 1881 को जन्म हुआ। असली नाम रिछपाल था। घर में सबसे छोटे थे, इसलिए सब छोटू नाम से पुकारते थे। इसी आधार पर स्कूल में छोटूराम नाम दर्ज़ हो गया।

यूनाइटेड पंजाब की धरती ( अब नया राज्य हरियाणा ) पर जन्में चौधरी छोटूराम ऐसे युग पुरूष थे, जिन्हें किसान-मजदूर वर्ग ने अपना ‘रहबर-ए- आजम' (a great guide/ protector) माना। शोषितों एवं वंचितों की लड़ाई लड़ने के कारण 'दीनबंधु' कहलाए। चौधरी छोटूराम द्वारा सामाजिक उत्थान के लिए दिए गए योगदान का सम्मान करते हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सन 1930 में 'राव बहादुर' की पदवी से नवाज़ा और बाद में मार्च 1937 में इस पदवी को 'सर' में परिवर्तित कर दिया गया।

पढ़ाई

ग्रामीण जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में पले- बढ़े छोटूराम प्रतिभासंपन्न बालक थे। मिडिल स्कूल परीक्षा विशेष योग्यता के साथ सन 1899 में झज्जर क़स्बे की स्कूल से उत्तीर्ण की। इस पर छह रुपये मासिक छात्रवृत्ति स्वीकृत की गई। आगे की पढ़ाई जारी रखने की छोटूराम की लालसा बलवती थी। पिता सुखीराम ने साहूकार से कर्ज़ लेकर अपने बेटे छोटूराम को दिल्ली के क्रिश्चियन मिशन स्कूल में दाख़िला दिलवा दिया। प्रतिभावान एवं जरूरतमंद छात्र होने के कारण वहाँ स्कूल फीस से पूरी छूट मिल गई।

मैट्रिक परीक्षा पास करने के बाद आर्थिक तंगी और स्वास्थ्य खराब रहने के कारण छोटूराम ने पढ़ाई छोड़ दी और गांव आ गए। कॉलेज में उसे अंग्रेजी और संस्कृत में सर्वोत्कृष्ट विद्यार्थी माना जाता था। कॉलेज के प्रिंसिपल मिस्टर राइट को जब पता चला कि प्रतिभावान छात्र छोटूराम पढ़ाई छोड़कर गाँव चला गया है तो उन्होंने दो शिक्षकों को छोटूराम के घर पर भेज कर उसे कॉलेज में बुलाया। दिल्ली बोर्ड से छात्रवृत्ति स्वीकृत करवाकर छोटूराम को संबल दिया। इस तरह छोटूराम ने सन 1903 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास कर ली। साल 1905 में छोटूराम ने दिल्ली के सैंट स्टीफंस कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। इस दौरान हरियाणा के किसान परिवार में जन्में और कलकत्ता में व्यवसायरत दानवीर सेठ छाजूराम ने छोटूराम की आर्थिक मदद की। घर की आर्थिक तंगहाली से उबरने के लिए चौधरी छोटूराम ने ग्रेजुएशन करनेके बाद कुछ समय इधर उधर नौकरी की। बाद में सन 1911 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लॉ की डिग्री प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर ली।

चौधरी छोटूराम अक्टूबर 1912 में रोहतक आकर वकालत करने लगे। ग्रामीण जीवन की सरलता, अनौपचारिक तथा स्पष्टवादीता आदि गुण छोटूराम के व्यक्तित्व की मुख्य पहचान थी। उन्होंने झूठे मुकदमे नहीं लेना, बेईमानी से दूर रहना, गरीबों को निःशुल्क कानूनी सलाह देना, मुव्वकिलों के साथ सद्‍व्यवहार करना आदि सिद्धांतों को अपने वकालती जीवन का आदर्श बनाया। वे अपने मुवक्किलों को भाई- बंधु या रिश्तेदार के समान समझते थे। इसलिए कृषक समाज में चौधरी छोटूराम की छवि में चार चांद लग गए।

सामाजिक चिंतन

आज़ादी पूर्व संयुक्त पंजाब में साहूकारों का पूरा आतंक था। देश में जितने साहूकार थे उसका एक चौथाई पंजाब में थे। किसानों की कमाई इन साहूकारों के चक्रव्रधि ब्याज चुकाने में चली जाती थी। कर्ज न चूका पाने की स्थिति में साहूकार किसान की ज़मीन, बैल आदि सब कुर्क करवा देते थे। पंजाब में आर्थिक तौर पर भेदभाव की बहुत गहरी खाई बन चुकी थी। लगभग सभी किसान कर्जे में डूब चुके थे।

चौधरी छोटूराम ने सामाजिक स्थितियों का अध्ययन करते हुए समाज को दो वर्गों में विभक्त किया: कमेरा (शोषित ) और लुटेरा (शोषक/ मंडी-फंडी )
वे कहते थे कि दुनिया में दो ही जाति अथवा वर्ग हैं, एक कमाऊ दूसरा खाऊ। सर छोटूराम कहा करते थे कि मुझे बनिए, महाजनो से वैर नहीं है। मुझे उनकी उस जालिमाना लूट-खसोट से वैर है, जो सूद दर सूद कि शक्ल मे की जा रही है और जिसने बेचारे किसान का खून चूस लिया है।

चौधरी छोटूराम के अनुसार "अगर दुनिया में कोई पेशा ऐसा है, जिसकी कमाई नेक है, तो वह पेशा हलपति जमींदार का है, अगर दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा है, जो धैर्य और संतोष की जिन्दा मिसाल है, तो वह यही जमींदार है।"

चौधरी छोटूराम ने नवम्बर 1929 को रोहतक में दिए अपने भाषण में कहा था कि 'हम गोरे बनियों का शासन बदल कर काले बनियों का शासन नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि भारतवर्ष में किसान-मजदूर का राज हो।'
( जाट गजट , 27 नवम्बर , 1929 , पृ.4 )

किसान से आह्वान करते हुए कहते हैं – “ए ज़मींदार (किसान) तू समाज का निचला भाग नहीं है, बल्कि सबसे श्रेष्ठ है। तुम हलपति ही नहीं, देखो तुम खेड़ापति और गढ़पति भी है ; तुम हुकूमत का तख़्त-ए-मश्क बनने के लिए पैदा नहीं हुए हो बल्कि हुकूमत करने के लिए पैदा हुए हो; तुम अपने असली स्वरूप को पहचान लो…”.

सर छोटूराम ये भी कहते थे कि सरकार के दो वर्ग हैं। एक वर्ग जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों का होता है जो कानून बनाता है। दूसरा वर्ग नौकरों का होता है जो कानूनों के अनुसार देश का प्रबन्ध करता है अथवा स्कीमों को लागू करता है। जब तक दोनों वर्ग समान विचारधारा के न हों, कल्याणकारी राज्य नहीं बन सकता।

सामाजिक कार्य

चौधरी छोटूराम छात्र जीवन में ही समाज के विद्रूप चेहरे से रूबरू हो चुके थे। जानते थे किसाहूकार ( moneylenders ) किसानों के साथ गुलामों जैसा बर्ताव करते हैं। किसान की जमीन और गहने गिरवी रख कर साहूकार रक़म उधार देते थे। ब्याज पर ब्याज वसूलते थे। अंततः किसान की जमीन कुर्क होकर साहूकार के हाथों में चली जाती थी। इस प्रकार किसानों का थोक में शोषण ( wholesale exploitation ) हो रहा था पर इस शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं था।

किसानों की दारुण दशा से व्यथित होकर युवा वकील छोटूराम ने सभी कृषक समुदायों-- हिंदू, सिख मुस्लिम-- को संगठित किया। किसानों को सुप्त अवस्था से जगाने के लिए रोहतक में 1912 में जाट सभा का गठन किया गया। इस सभा के सचिव बने। यह सभा का नाम 'जाट सभा' था पर इसके दरवाज़े सभी धर्मों के खेतिहर समुदायों के लिए खुले थे।

युवा वक़ील छोटूराम समझ चुके थे कि शिक्षा के बिना समाज में चेतना और आत्मसम्मान का संसार नहीं हो सकता। रोहतक में उस समय हाई स्कूल भी नहीं थी। इसलिए चौधरी छोटूराम, चौधरी लालचंद और दूसरे समाजसेवियों ने मार्च 1913 रोहतक में एंग्लो संस्कृत जाट हाई स्कूल खोली। इस स्कूल के दरवाजे भी सभी धर्मों एवं समुदायों के बच्चों के लिए खुले थे। इस स्कूल की प्रबंधक कमेटी का संस्थापक सचिव चौधरी छोटूराम को बनाया गया और वे इस पद पर सन 1921 तक रहे। चौधरी छोटूराम ने साल 1921 में रोहतक में ही जाट हीरोज हाई स्कूल की स्थापना की। अन्यत्र भी स्कूल खोलने का सिलसिला जारी रखा।

चौधरी छोटूराम ने ग्रामीण क्षेत्र में किसान एवं मजदूरों को आह्वान किया कि वे अपने बच्चों को पढ़ाएं और सेना में भर्ती करवाएं। उनका उद्देश्य कौम को अनावश्यक संघर्ष से बचाना, बच्चों को शिक्षित करने का इंतज़ाम कर उनका रुख नौकरियों की तरफ करने का था। चौधरी छोटूराम ने किसानों को सेना में भर्ती करवाने की मुहीम खूब जोरों से चलाई और प्रथम विश्व युद्ध में उन्होंने रोहतक इलाके से 22,144 युवाओं को अंग्रेजी सेना में भर्ती करवाया। ऐसा करने के उनके दो उद्देश्य थे। पहला, गरीब किसानों की सैन्य सेवा से आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। दूसरा, जब युवा घर से बाहर निकलेंगे तो कुछ सीखेंगे और बाहरी दुनिया से जुड़ेंगे। उनकी ये दोनों ही बातें एकदम सही साबित हुई। कालान्तर में सैन्य सेवा से हरियाणवासियों में जो आर्थिक - सामाजिक परिवर्तन आया, वह अत्यधिक व्यापक और गहरा था।

अख़बार का प्रकाशन

चौधरी छोटूराम ने किसानों के स्वाभिमान को जगाने और उनमें राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिए साल 1915 में उन्होंने उर्दू साप्ताहिक 'जाट गजट' का प्रकाशन शुरू किया। बता दें कि उस जमाने में पंजाब में उर्दू भाषा का दबदबा था। थोड़े ही समय में यह पत्र
लोकप्रिय हो गया।

अख़बार में छपी चौधरी छोटूराम की कृति ‘ठग बाज़ार की सैर’ ख़ूब चर्चित रही। उनकी पुस्तक 'बेचारा जमींदार' के 17 लेखों की श्रंखला जब 'जाट गजट' में छपी तो सब जगह खलबली मच गई।

22 मार्च 1935 को 'जाट गज़ट' में सर छोटूराम ने लिखा, " कुछ प्रान्तों में ज़मींदार और किसान अलग हैं। लेकिन पंजाब में ये दोनों एक दूसरे के समानार्थी हैं। यहाँ जिस कृषक को जमीन पर मालिकाना हक है वह असल में उसे जोतता है।"

यहाँ ये जान लेना जरूरी है कि राजस्थान के रजवाड़ों में अंग्रेज़ों का सीधा राज नहीं था। यहाँ जमीन पर मालिकाना हक जोतने वाले किसान का नहीं होकर इलाके के ठिकानेदार/ जागीरदार का होता था। जमीन पर मालिकाना हक उसका होने के कारण असल में ज़मींदार भी वही होता था। इस असलियत को जाने-समझे बिना कुछ लोग भ्रमित होकर सर छोटूराम को जमींदारों ( सामान्य अर्थ बड़े किसानों ) का हितैषी मान लेते हैं, जबकि पंजाब में तत्समय ज़मींदार ( जमीन वाला ) का अभिप्राय किसान ही होता था।

चौधरी छोटूराम ने किसानों की बदहाली का एक कारण धर्म के ठेकेदारों द्वारा फैलाए गए पाखण्ड और धार्मिक दकियानूसीपन के जाल को भी माना। भोलेभाले किसान उसमें फंसकर अपना नुकसान कर बैठते हैं। इसीलिए सर छोटूराम ग्रामीण इलाकों में अंधविश्वास और पाखण्ड के प्रचलन पर करारा प्रहार करने से नहीं चूकते थे।

चौधरी छोटूराम अपने चिर-परिचित अंदाज़ में लिखते हैं:

"किसान कुंभकरण की नींद सो रहा है, मैं जगाने की कौशिश कर रहा हूं - कभी तलवे में गुदगुदी करता हूं, कभी मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारता हूं। वह आंखें खोलता है, करवट लेता है, अंगड़ाई लेता है और फिर जम्हाई लेकर सो जाता है। बात यह है कि किसान से फायदा उठाने वाली जमात एक ऐसी गैस अपने पास रखती है जिससे तुरंत बेहोशी पैदा हो जाती है और किसान फिर सो जाता है।"

चौधरी छोटूराम किसान की लूट का एक कारण धर्म के नाम पर होने वाली ठगी को मानते थे और धर्म के नाम पर किए जाने वाले मिथ्याचारों को क्लोरोफार्म की संज्ञा देते थे।

जब दुनिया में सबसे बड़े और प्राचीनतम व्यवसाय से जुड़े लोग धर्म की सीमाओं से बाहर निकल कर स्वयं को संगठित करने की शुरुआत करते हैं तो पुजारी , मौलवी, ग्रंथि, ज्योतिषी, मुल्ला, क़ाज़ी, ज्ञानी, वक़ील , डॉक्टर, पत्रकार, दुकानदार और सभी बेहद बेचैनी महसूस करने लगते हैं। क्या तुम्हें यहाँ कोई मक़सद दिखाई नहीं देता ? हाँ , यहाँ मक़सद है कि तेरे जाग जाने और संगठित हो जाने की सूरत में इन लोगों को अपनी रोज़ी और लीडरी खो जाने का डर है और तू यदि इनका दास ही बना रहना चाहता है तो इनके निर्देशों, संदेशों और उपदेशों के अनुसार आचरण कर ; इन्हें चंदा दे देकर इनके लिए धन जुटाता रह।

चौधरी छोटूराम बार- बार कहा करते थे, ‘ए भोले किसान, मेरी दो बात मान ले- एक बोलना सीख और एक दुश्मन को पहचान ले।’ उन्होंने सत्ता और समाज को चेताते हुए अपने एक लेख में लिखा था,
"किसान को लोग अन्नदाता तो कहते हैं लेकिन यह कोई नहीं देखता कि वह अन्न खाता भी है या नहीं। जो कमाता है वह भूखा रहे यह दुनिया का सबसे बड़ा आश्‍चर्य है।
मैं राजा-नवाबों और हिन्दुस्तान की सभी प्रकार की सरकारों को कहता हूं कि वो किसान को इस कद्र तंग न करें कि वह उठ खड़ा हो । इस भोलानाथ को इतना तंग न करो कि वह तांडव नृत्य कर बैठे । दूसरे लोग जब सरकार से नाराज होते हैं तो कानून तोड़ते हैं, किसान जब नाराज होगा तो कानून ही नहीं तोड़ेगा, सरकार की पीठ भी तोड़ेगा ।"

राजनीतिक जीवन

1916 में जब रोहतक में कांग्रेस कमेटी का गठन हुआ तो चौधरी छोटूराम को उनके प्रभाव के कारण उसका अध्यक्ष बनाया गया। मगर बाद में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़े कुछ मसलों पर असहमत होकर नवम्बर 1920 में वे कांग्रेस से अलग हो गए, लेकिन वे महात्मा गांधी का सदैव सम्मान करते रहे।

चौधरी छोटूराम ने सन् 1923 में पंजाब के जाने-माने मुस्लिम नेता सर फजले हुसैन के साथ मिलकर किसानों का एक मजबूत संगठन बनाया जिसे युनियनिस्ट पार्टी ( जमींदारा लीग ) नाम दिया गया। गांवोन्मुखी इस पार्टी ने धर्म की बज़ाय ग्रामीणों को उनके आर्थिक आधार पर एक सूत्र में बांधने का काम किया। ये पार्टी हिंदू-मुस्लिम एकता की जबरदस्त समर्थक थी। पार्टी के गठन के अवसर पर चौधरी छोटूराम ने कहा था कि आज से जो किसान होगा चाहे वह दलित हो या सवर्ण, अगर वह जमींदारा पार्टी से जुड़ा है तो वह जमींदार कहा जाएगा। वह जमींदारा पार्टी का सच्चा सिपाही और जमींदार होगा।

बता दें कि संयुक्त पंजाब एक मुस्लिम बाहुल्य वाला प्रांत था। 1931 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार प्रांत में मुस्लिम 56.24 प्रतिशत, हिन्दू 26.83 प्रतिशत और सिख 12.99 प्रतिशत थे। शहरी हिंदुओं का व्यापार- वाणिज्य और लोक सेवाओं में प्रभुत्व था और पेशेवर साहूकार भी बहुसंख्या में हिंदू थे।

सितम्बर 1923 में पंजाब विधान परिषद ( Punjab Legislative Council ) के लिए हुए चुनाव में चौधरी छोटूराम विजयी हुए। यूनियनिस्ट पार्टी बहुमत प्राप्त पार्टी के रूप में उभरी। सितंबर 1924 में चौधरी छोटूराम जब मंत्रिमंडल में कृषि मंत्री बने तो पंजाब के गैर कृषक हिंदू और मुसलमान, खास तौर से व्यापारी और साहूकार, बड़े दुखी हुए और ख़ूब विरोध किया क्योंकि चौधरी छोटूराम किसानों के पुरजोर पैरोकार थे।

चौधरी छोटूराम ने मंत्री के रूप में कृषक वर्ग की लड़ाई दमख़म से लड़ी, इसलिए शहरी तबका उनका दुश्मन बन गया था। चौधरी छोटूराम दिलेरी का परिचय देते हुए ग्रामीण इलाकों और ग्रामीणों के उत्थान हेतु उन्होंने कई क़दम उठाते रहे। परिषद के तीसरे चुनाव में चौधरी छोटूराम ने फिर जीत दर्ज की परंतु शहरी हिंदुओं के विरोध के चलते उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया। सन 1927 में चौधरी छोटूराम को पंजाब विधान परिषद में यूनियनिस्ट पार्टी का नेता चुन लिया गया और वे इस पद पर सन 1936 तक रहे।

सन 1937 के यूनाइटेड पंजाब प्रोवेंशियल असेंबली चुनावों में यूनियनिस्ट पार्टी ने कुल 175 सीटों में से 95 सीटों पर जीत दर्ज़ कर बहुमत हासिल किया।
तब लाहौर अविभाजित पंजाब प्रांत की राजधानी हुआ करता था। 1 अप्रैल 1937 में पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी के मन्त्रीमण्डल ने शपथ ग्रहण की। चौधरी छोटूराम विकास मन्त्री बने और ये विभाग उनके पास सन 1941 तक रहा। बाद में चौधरी छोटूराम को रेवेन्यू मिनिस्टर बनाया गया और वे इस पद पर मृत्यु तक ( 9 जनवरी 1945 ) तक रहे।

सुनहरे कानूनों का सुनहरा चरण

यूनाइटेड पंजाब में चौधरी छोटूराम ने किसानों के हितों को सर्वोपरि महत्व दिया। वे कहा करते थे कि मैं पक्का खेतिहर हूँ, और इनके हक के लिए लड़ना मैं अपना सर्वोपरि कर्त्तव्य समझता हूँ। सन 1932 की सर्वजातीय काँफ्रेंस में किसान का राज स्थापित करने कि लिए उन्होंने मंडी बिल, कर कानून, भूमि सुधार व कर्मचारी कानून आदि का परिचय देकर अपने आपको किसानों का सच्चा हितैषी सिद्ध कर दिया।

सन् 1937 में पंजाब प्रोविंशियल असेम्बली के चुनाव सम्पन्न हुए। सन 1936 में पंजाब में 57% मुस्लिम, 28% हिन्दू, 13% सिक्ख और 2% ईसाई थे। इस जनसंख्या का 90% भाग किसानों का था, जिनमें से 80% किसान कर्जदार थे। यूनियनिस्ट पार्टी व्यावहारिक स्तर पर 90% आबादी के हितों की रक्षक थी।

पंजाब विधान परिषद के चुने हुए सदस्य और मंत्री की हैसियत से चौधरी छोटूराम ने किसानों को साहूकारों के चंगुल से छुड़ाने, उनकी भूमि को भूमि कर से मुक्त कराने, लगान हटाने और उनके आर्थिक विकास के लिए मंत्रिमण्डल में सदा आवाज उठायी और इनसे सम्बन्धित कानून बनाने में प्रमुख भूमिक निभाई।
उन्होंने जो कानून बनाए उनको किसानों ने ‘सुनहरी कानून’ ( golden acts ) और शहरियों एवं साहूकारों द्वारा बनाए गए कानूनों को ‘काले कानून’ का नाम दिया। इन कानूनों से पंजाब के किसानों को शोषण से मुक्ति मिली और उन कानूनों ने पंजाब के किसान की तक़दीर बदल दी थी। पंजाब के इतिहास में वह ऐसा दौर था कि देहात का किसान मज़दूर उत्साह से लबरेज़ था तो व्यापारी छाती पीट रहा था। असल में किसान हितैषी कानून तो वे थे। इन सुनहरे क़ानूनों में एक मंडी एक्ट भी था जिसने उस समय गैर कृषक व्यापारी वर्ग को यूनियनिस्ट पार्टी व यूनियनिस्ट नेताओं के विरुद्ध लामबंद होने पर मजबूर कर दिया।

साल 1938 में जब यूनियनिस्ट मंत्रिमंडल ने पंजाब विधान परिषद में किसान- मजदूर हितैषी चार प्रमुख कानूनों के बिल पास करवाए तो व्यापारियों, साहूकारों एवं साम्प्रदायिक ताकतों ने ख़ूब विरोध किया। ख़ास तौर से चौधरी छोटूराम के खिलाफ़ विष वमन किया।

कुछ महत्वपूर्ण कानूनों का विवरण ये है:

कर्जा माफी ऐक्ट
The Punjab Relief of indebtednes act 1935
&
The Punjab Relief of indebtedness(Amendment) act 12th 1940

यह क्रान्तिकारी ऐतिहासिक अधिनियम दीनबन्धु चौधरी छोटूराम ने 8 अप्रैल 1935 में किसान व मजदूर को सूदखोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बनवाया। इस कानून के तहत अगर कर्जे की दुगुनी रक़म दी जा चुकी है तो वे ऋणी ऋण - मुक्त समझा जाएगा।

कर्जदार राहत’ कानून के तहत ये प्रावधान भी किया गया कि किसान के खेत व मकान व खेती करने के उपकरण और एक तिहाई अन्न कुर्क नहीं किए जा सकेंगे।

कर्जा माफी बिल जब पेश हुआ तो शहरी लोगों की तरफ से विरोध हुआ और इसे हिन्दुओं पर चोट के रूप में प्रचारित किया गया। वस्तुतः यह बिल ऋण के बोझ तले दबे किसानों को कुछ राहत दिलाने के लिए था।

पंजाब कर्जदार रक्षक कानून ( The Punjab Debtors' Protection Act, 1936.)
पास करके किसानों की जमीनों की रक्षा कर दी गई।

पंजाब साहूकार पंजीकरण एक्ट ( The Punjab Registration of Moneylenders Act,1938)

यह कानून 2 सितम्बर 1938 को प्रभावी हुआ था।
इस कानून के ज़रिए ब्याज पर रुपया देने का धंधा करने वाले महाजनों व साहूकारों पर बिना रजिस्ट्रेशन के किसी को भी कर्ज देने पर प्रतिबंध लगाया गया। इससे अनाप-सनाप ब्याज वसूल करने और किसानों को मुकदमों में फंसाने वाले साहूकारों की फौज पर अंकुश लग गया।

गिरवी/बंधक भूमि वापिस एक्ट (The Punjab Restitution of Mortgaged Land Act 4th, 1938 )

यह कानून 9 सितम्बर 1938 को प्रभावी हुआ। इसके जरिए जो जमीनें 8 जून, 1901 के बाद कुर्की से बेची हुई थीं तथा 37 सालों से गिरवी/ रहनशुदा चली आ रही थीं, वो सारी जमीनें किसानों को वापिस दिलवाई गईं। इस कानून के तहत केवल एक सादे कागज पर जिलाधीश को एक प्रार्थना पत्र देने का प्रावधान किया गया। इस कानून के तहत मूल राशि का दोगुना धन साहूकार प्राप्त कर चुका है तो किसान को जमीन का पूर्ण स्वामित्व दिए जाने का प्रावधान किया गया। एक आंकड़े के अनुसार इस कानून से 3,65,000 किसानों को फायदा हुआ और 8,35,000 एकड़ जमीन किसानों को वापिस मुफ्त मिल गई।

पंजाब कृषि-उत्पाद मार्केटिंग ऐक्ट (The Punjab Agricultural Produce Marketing Act 1938)

यह अधिनियम 5 मई 1939 से प्रभावी माना गया। इसके तहत नोटिफाइड ऐरिया में मार्किट कमेटियों का गठन किया गया। किसानों के साथ ठग्गी और अन्याय का खुलासा करते हुए एक कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि किसानों को 100 रुपये के बिक्री माल के केवल 59 रुपये 6 आने मिल पाते हैं। आढ़त, तुलाई, रोलाई, मुनीमी, पल्लेदारी, दलाली, धर्मादा, कमीशन आदि के नाम पर किसान की कमाई से हड़प ली जाती थीं। इस अधिनियम के तहत किसानों को उसकी फसल का उचित मूल्य दिलवाने का नियम बना। आढतियों के शोषण से किसानों को निजात इसी अधिनियम ने दिलवाई।

इस ऐक्ट के अमल में आने पर मंडियों का पंजीकरण किया गया और महाजनों को लाइसेंस लेना जरूरी कर दिया गया। मंडी मार्केटिंग कमेटी में 2/3 प्रतिनिधि किसानों के और 1/3 महाजनों के निर्धारित किए गये। इस कानून का बिल जब पेश किया गया तो इसका विरोध करते हुए हिन्दू महासभा के विधायक डॉ गोकुलचन्द नारंग ने इसे 'मारकूट ( mighting ) बिल' कहा। कई गैर किसानों ने कहा कि इस बिल से हमारा सर्वनाश हो जायेगा। डा० गोकुलचन्द नारंग ने कहा कि “इस बिल के पास होने पर रोहतक का दो धेले का जाट लखपति बनिया के बराबर मार्केटिंग कमेटी में बैठेगा।” चौ० छोटूराम ने उसके उत्तर में कहा कि “मैं डाक्टर साहब से कहना चाहता हूं कि जाट एक अरोड़े से किसी भी भांति कम आदर का पात्र नहीं है...वह समय आ रहा है जब धन के गुलाम लोगों को परिश्रमी धनी जाट बहुत पीछे छोड़ देगा।”

यहाँ ये बताना जरूरी है कि नारंग हिंदू महासभा से जुड़े नेता थे और लगभग साहूकार भी , इसलिए इस क़ानून को इन लोगों ने साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश कर रहे थे, जबकि इनके क़र्ज़े तले हर मज़हब का किसान मज़दूर दबा हुआ था।

विडंबना देखिए कि जिस मंडी कानून को पास करवाने में पुरानी पीढ़ी को कई स्तरों पर कई लड़ाइयां लड़नी पड़ीं, उसी कानून को वर्तमान सरकार ने नए कृषि कानूनों के नाम पर ख़त्म कर इसे किसानों को आज़ादी का तोहफ़ा देने का ढिंढोरा पीट रही है और नई पीढ़ी गुमराह हुई जा रही है।

सांप्रदायिकता विरोधी

छोटूराम ने जिन्ना के ‘दो राष्ट्र’ सिद्धान्त के विरुद्ध दमदार आवाज उठाई और पाकिस्तान की स्थापना का पुरजोर विरोध किया। सर छोटूराम का व्यक्तित्व ऐसा था कि उनकी वजह से अविभाजित पंजाब प्रांत में न तो मोहम्मद अली जिन्ना की चल पायी और ना ही हिंदू महासभा की। वो उस पंजाब प्रान्त की सरकार के मंत्री थे जिसका आज दो तिहाई हिस्सा पकिस्तान में है।

जुलाई 1936 में फज़ले हसन की मृत्यु तक सांप्रदायिक ज्वार को रोकने में छोटूराम की अहम भूमिका रही। जिन्ना ने सारे दांव चले लेकिन यूनियनिस्ट नेता उसके असर में नहीं आए। हालांकि फज़ले हुसैन की मृत्यु के बाद सांप्रदायिकता का जहर धीरे-धीरे प्रांत की राजनीति में घुलने लगा। बाद में चौधरी छोटूराम को विश्वास में लिए बैग़ैर जिन्ना-सिकन्दर हयात पैक्ट लखनऊ में अक्टूबर 1937 में हुआ जिसके तहत यूनियनिस्ट पार्टी के मुस्लिम सदस्य चाहें तो मुस्लिम लीग के सदस्य बन सकते थे। चौधरी छोटूराम की मृत्यु तक पंजाब में सांप्रदायिक तनाव नियंत्रण में रहा। उनकी मृत्यु के बाद यूनियनिस्ट पार्टी में ऐसा कोई नेता नहीं था जो इस पर नियंत्रण रख सके। नतीज़ा ये हुआ कि अब जिन्ना और मुस्लिम लीग के नेता पंजाब में बेरोकटोक घूमकर साम्प्रदायिक कार्ड खेलने लगे।

चौ. छोटूराम ने कृषक और वंचित वर्ग की जागृति का जो अभियान छेड़ा था उसको सिर्फ यूनाइटेड पंजाब तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि पड़ोसी प्रान्तों उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी चलाया। आर्य समाज का प्रचार -प्रसार करते हुए किसानों का सशक्त संगठन तैयार किया और उन्हें अपने बच्चों को शिक्षित करने का आवाह्न किया। सेठ देवीबक्श सर्राफ के आर्थिक सहयोग राजस्थान के कई ठिकानों में स्कूल खुलवाए ताकि किसानों के बच्चों को शिक्षित हो सकें। जन जागृति के लिए भजनोपदेशक भेजे गए। खासतौर से शेखावाटी क्षेत्र में इसका बड़ा असर पड़ा।

9 जनवरी 1945 को सर छोटूराम का लाहौर में निधन हुआ। उनके पार्थिव शरीर को रोहतक लाया गया और उनका अंतिम संस्कार उन्हीं द्वारा स्थापित 'जाट हीरोज़ मेमोरियल सीनियर सेकेंडरी स्कूल' परिसर में हुआ। अंतिम संस्कार में भारी भीड़ जमा हुई। भोले- भाले ग्रामीण रोते हुए यह कह रहे थे "हमारा राजा मर गया।"


 लेखक :प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

दिनांक: 2 4 नवम्बर, 2020

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