खाप पंचायत और पगड़ी रश्म

खाप पंचायत और पगड़ी रश्म
उत्तर भारतीय समाज गठन की बुनियाद सदियों से खाप पंचायतें रही है।खाप का मतलब होता है आकाश से भी ऊपर व पानी से भी साफ।पिछले एक दशक से कई आपसी द्वेष के मामलों को लेकर मीडिया ने खाप पंचायतों को प्रगतिशील समाज में बाधक के रूप में निरूपित करने की कोशिश की है।सबसे बड़ा मुद्दा समान गोत्र में शादी को लेकर रहा है व खापें कई बार खुलकर हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन की मांग कर चुकी है।

खापों का लिखित इतिहास सम्राट हर्षवर्धन के काल से शुरू होता है।बताया जाता है कि गुप्त काल के पतन के बाद उत्तर भारत मे अराजकता की स्थिति पैदा हो गई थी।थानेसर के बैंस कबीले के मुख्या प्रभाकर वर्धन ने अराजकता की स्थिति संभालने की कोशिश की थी।विभिन्न कबीलाई खापों ने उनका समर्थन किया था।बीमारी के कारण प्रभाकरवर्धन का निधन हो गया।ईसवी सन 606 में सर्वखाप पंचायत हुई प्रभाकरवर्धन के बेटे हर्षवर्धन को पगड़ी पहनाई व राज्य व्यवस्था बनाये रखने के लिए हरसंभव मदद का ऐलान किया।खापों ने बड़ी सेना हर्षवर्धन को उपलब्ध करवाई और खापों के सहयोग से पूरे उत्तर भारत मे राजनैतिक स्थिरता कायम की गई।कनौज को राजधानी के रूप में स्थापित किया व नालंदा जैसे विश्विद्यालय उसी समय उभरे।

विभिन्न मतानुसार 1199 में दूसरी सर्वखाप पंचायत टीकरी मेरठ में हुई थी। 1248 में तीसरी खाप पंचायत नसीरूद्दीन शाह के विरूद्ध की गई थी। 1255 में भोकरहेडी में, 1266 में सोरम में, 1297 में शिकारपुर में,1490 में बडौत में और इसके बाद 1517 में बावली में  तत्कालीन व्यवस्थाओं में उत्पन्न अराजकता को खत्म करने के लिए बड़ी खाप पंचायत हुई।सर्वखाप पंचायतों का आयोजन विदेशी आक्रमण से निपटने के लिए होता रहा। जब भी आक्रमण हुए सर्वखाप ने उनके विरुद्ध राजा-रजवाड़ों की मदद की।

बाद में जब इब्राहिम लोदी व जहीरुद्दीन बाबर के बीच चल रही जंग में जब बाबर जीत गया तो शासन चलाने के लिए खापों के बीच गया और 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने सर्वखाप पंचायत के अस्तित्व को मान देते हुए सोरम गाँव के चौधरी को सम्मान स्वरूप एक रुपया और 125 रुपए पगड़ी के ‍लिए दिया था।बाद में जब मुगल शासकों ने सीमा लांघी तो उनके खिलाफ खापें ही लड़ती रही।1857 में अंग्रेजों के खिलाफ मुख्य भूमिका खापों ने ही निभाई थी।देशी राजे-रजवाड़ों को सैनिक सदा खापें ही उपलब्ध करवाती रही।

 आजादी के बाद पहली सर्वजातीय सर्वखाप पंचायत 8 मार्च 1950 को सोरम में आयोजित हुई। तीन दिन तक चली इस पंचायत में पूरे देश की सर्वखाप पंचायतों के मुखियाओं ने भाग लिया। इस पंचायत के बाद दूसरी सबसे बड़ी सर्वखाप पंचायत 19 अक्टूबर 1956 को सोरम में ही आयोजित हुई थी।बाद में बाबा महेंद्रसिंह टिकैत ने खापों को दुबारा एकजुट करके सत्ता के खिलाफ बड़े-बड़े आंदोलन किये थे।

नब्बे के दशक के बाद पूंजीवाद ने जोर पकड़ा और खापों को विभिन्न माध्यमों से छिन्न-भिन्न करने की कोशिशें शुरू हो गई।इसमे बड़ी भूमिका मीडिया ने निभाई।लाज़िम है जब तक खापें मजबूत रहती तब तक सत्ता नागरिकों को गुलाम बनाकर शोषण नहीं कर सकती।खापों में राजनीति ने प्रवेश किया और अस्तित्व पर बड़ा सवाल खड़ा हो गया।खाप पंचायतों का इतिहास सैकड़ों वर्ष पुराना है। इस समय देश भर में लगभग 465 खापें हैं। जिनमें हरियाणा में लगभग 68- 69 खाप और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में करीब 30-32 खाप अपने पुराने स्वरूप में संचालित हैं।

वर्तमान किसान आंदोलन के प्रति सत्ता के रवैये को लेकर किसानों में आक्रोश फैला और लंबे संघर्ष को लड़ने के लिए अपनी जड़ों को टटोला गया।स्वाभाविक है खाप जैसी महान विरासत को दुबारा खड़ा करने की कोशिशें शुरू हुई।आज किसान आंदोलन तकरीबन दस महीने से सफलतापूर्वक चल रहा है वो सिर्फ और सिर्फ खाप सिस्टम की बदौलत चल रहा है और हर छल-कपट को नेस्तनाबूत करते हुए आगे बढ़ रहा है।सत्ता की हर रणनीति खाप सिस्टम के आगे नकारा साबित हो चुकी है।

जब सत्ता के खिलाफ किसान खाप पंचायतों की बुनियाद पर खड़ा होकर लड़ रहा है,ऐसे में आज छपरौली में चौधरी जयंतसिंह की पगड़ी रश्म में जुटे खाप चौधरीयों के मजमें के अलग मायने है।बशर्तें लोकतंत्र में लड़ाई के तरीके बदले हो लेकिन खापों के लड़ने के तेवर आज बरकरार नजर आए।सर्वजातीय खापों के तमाम प्रधान आज इस पगड़ी रश्म में शामिल हुए और चौधरी जयंत सिंह के प्रति समर्थन जताया।चाहे इसको पार्टी बाजी से दूर सामाजिक समारोह बताने की कोशिशें की जा रही हो लेकिन खापों के इतिहास को देखते हुए इसके मायने स्पष्ट है।कम से कम पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसानों की पीड़ा आज साफ झलक रही थी और जड़ों पर लौटने का इरादा भी।

मीडिया भी अब खापों को बदनाम करने के घेरे से बाहर आकर खापों की ताकत को समझने में लगा हुआ।नून पानी की कसम के अर्थ खोज रहा है।पूंजीवादी मॉडल की निरंकुशता ने पूरे देश को आइना दिखा दिया है और पूरा देश किसानों की तरफ टकटकी लगाए देख रहा है,खापों के तेवरों का मुआयना कर रहा है।यह पगड़ी एक युग का सूत्रपात करने जा रही है।बिना इस पगड़ी के सम्मान रखे दिल्ली के तख्त पर कोई नहीं टिक पाया है।

लेखक:प्रेमसिंह सियाग

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