शिवदेवी तोमर :अंग्रेज़ फौज के दमन का बदला लेने वाली बड़ौत की 16 वर्षीया किशोरी

 



सन 1857 की क्रान्ति के समय जाट युवतियों ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया था। 

10 मई 1857 को हिन्दुस्तानी सैनिकों ने मेरठ कैंट में अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। शीघ्र ही इस विद्रोह की आग आसपास के गांवों, शहरों तक में फैल गई। बड़ौत के शाहमल जाट ने इलाके पर घेरा डाल दिया और खुदमुख्तार आज़ादी घोषित कर दी। कहा जाता है कि 18 जुलाई 1857 को अंग्रेज़ फौज बड़ौत पहुंची और हमला कर दिया। भीषण युद्ध में बाबा शाहमल जाट वीरगति को प्राप्त हुए। हमले में अंग्रेज़ों ने क्रूरता की हदें पार कर दीं। अनुमान के अनुसार 30 स्वतन्त्रता सेनानियों को पकड़ लिया गया और पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई। गांव को बुरी तरह लूटा गया, तबाह बरबाद कर दिया गया। कहा यह भी जाता है कि अंग्रजों ने गांव का रसद पानी बंद कर दिया, अनाज, जानवरों, फसलों और संपत्ति पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया।
16 वर्षीय शिवदेवी तोमर ने अपनी आंखों के सामने अपने गांव वालों पर ये भीषण अत्याचार देखे। प्रतिशोध की भावना स्वाभाविक थी। वो और उनकी मित्र किशन देवी ने क्षेत्र के कुछ नौजवानों को एकत्र किया, बदला लेने का निर्णय लिया गया।
उन्होंने बड़ौत में तैनात अंग्रेजी टुकड़ी पर जोरदार हमला किया। अचानक हुए आक्रमण से अंग्रेज़ सैनिक घबड़ा कर भागे। विभिन्न स्रोतों के अनुसार हमले का नेतृत्व शिवदेवी तोमर ने स्वयं किया और कई अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। बेहतर हथियार होने के बावजूद अंग्रेज़ सैनिक हमले का सामना न कर सके। शिवदेवी तोमर की टुकड़ी का हमला इतना तेज़ था कि अंग्रेज़ बड़ौत छोड़ कर भाग खड़े हुए। कहा जाता है कि हमले में शिवदेवी तोमर स्वयं गंभीर रूप से घायल हो गईं। जब गांव वाले उनके घावों का उपचार कर ही रहे थे तभी अंग्रेज़ टुकड़ी वापस लौटी और उसने उस घायल युवा वीरांगना पर एक के बाद एक कई गोलियां दाग दीं। युवा वीरांगना ने मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए शहादत का वरण किया और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
लेकिन शिवदेवी तोमर की शहादत व्यर्थ नहीं गई। कहा जाता है कि उनकी 14 वर्षीय छोटी बहन जयदेवी तोमर ने अपनी बहन की मृत्यु का बदला लेने की शपथ ली। उन्होंने गांव के युवाओं को ललकारा और अगल बगल के गावों के युवाओं का दल बना कर, लखनऊ तक अंग्रेज़ टुकड़ी का पीछा किया।
रास्ते में उन्होंने बुलंदशहर, मेरठ, अलीगढ़, ऐटा, मैनपुरी, इटावा की जनता को भी अंग्रेज़ों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए ललकारा। लखनऊ पहुंचने पर यह दल, कई दिनों तक बिना किसी रसद, बिना किसी सहायता के, अंग्रेज़ टुकड़ी की तलाश में भटकता रहा। अंततः उन्हें वह अंग्रेज़ सैनिक टुकड़ी मिल ही गई। कहा जाता है जयदेवी तोमर ने अपनी तलवार से टुकड़ी के अंग्रेज़ अधिकारी का सर कलम कर दिया। शेष दल ने अंग्रेज़ सैनिकों पर हमला कर दिया। जिस बंगले में अंग्रेज़ ठहरे हुए थे, उसे आग लगा दी गई। इस संघर्ष में स्वयं जयदेवी तोमर को वीरगति प्राप्त हुई। बाद में स्थानीय नागरिकों ने लखनऊ में ही सम्मानपूर्वक उनकी अन्त्येष्टि की।
सुदूर गांवों के ऐसे अनकहे युवा वीर और वीरांगनाओं के विलक्षण शौर्य प्रसंगों के बिना हमारा इतिहास अधूरा है।

स्वतंत्र भारत की हर पीढ़ी की आज़ादी, इन्हीं वीरों के संघर्षों और बलिदानों की विरासत है। ज़रूरी है कि हर आने वाली पीढ़ी को इन अनकहे वीरों के महान बलिदानों और शौर्यगाथा से परिचित कराया जाय। हमारी इतिहास की पुस्तकों में उनके त्याग की गाथाओं को सम्मिलित कर, कृतज्ञतापूर्वक सम्मानित किया जाना चाहिए।

 

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