चौधरी देवीलाल : लोकराज का योद्धा
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ताऊ चौधरी देवीलाल |
भारतीय राजनीति की कहानियों में कुछ ही पात्र ऐसे हैं, जो रोशनी में खड़े होकर भी छाया की तरह धुंधले बने रहते हैं। चौधरी देवीलाल उन्हीं में से एक हैं। वे किसानों के “ताऊ”, गणराज्य के उपप्रधानमंत्री, हरियाणा की राजनीति का वह रहस्य, जिसे जितना खोलो, उतना गहराता है; जैसे किसी गाँव का पुराना कुआँ। पानी सदा साफ़, पर तली कभी दिखाई न दे। भीतर झांको तो अपनी ही आवाज़ों की प्रतिध्वनियाँ सुनाई दें।
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मैंने धरती की धड़कन को हथेलियों को टिकाकर सुना है।
एक मुट्ठी मिट्टी, एक अंजुरी पसीना और बीच में आदमी का नाम देवीलाल। चौधरी देवीलाल। ताऊ देवीलाल। पत्रकारिता के चालीस साल में ऐसा कद्दावर नेता मैंने दूसरा नहीं देखा। एक शांत तूफ़ान की तरह।
1993 में गंगानगर में राजस्थान के दिग्गज नेता भैरोसिंह शेखावत चुनाव लड़ने के लिए हमारे यहाँ आए थे और उन्हें सबसे बड़ी चुनौती मिली थी एक युवा नेता सुरेंद्रसिंह राठौड़ से। राठौड़ की जीत की अपार संभावनाएँ थीं और काँग्रेस तथा भाजपा के नेताओं और लोकल मीडिया में यह भय कि वह जीत गया तो क्या का क्या ही हो जाएगा। लोगों में राठौड़ प्रधानजी के नाम से मशहूर थे और प्रधान जी को देश के प्रधान जी का साथ मिला तो उन्हें जीत से रोकने के लिए कुछ लोगों ने कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में वोटिंग करके उन्हें जिता दिया था। लेकिन इस चुनाव को चुनाव बनाया चौधरी देवीलाल ने ही। वे कई दिन डेरा डाले रहे और भैरोसिंह शेखावत पर उन्होंने बहुत हमले किए। चौधरी साहब ने कृषि मंत्री के तौर पर वे आदेश लोगों के सामने रखे थे कि किस तरह उन्होंने केंद्र से फ़सल ख़राबे का पैसा सुदूर गंगानगर जिले के लिए दिया था और किस तरह शेखावत के नेतृत्व वाली उस सरकार ने उसमें से एक पैसा भी इन किसानों को नहीं दिया। उस चुनाव में चौधरी देवीलाल और सीपीआई के नेता योगेंद्रनाथ हांडा के भाषण अद्वितीय थे। उस चुनाव में मैं उनके साथ छाया की तरह रहा था और कई बार बातचीत का मौक़ा मिला था।
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चौधरी साहब का ननिहाल उस पुराने गंगानगर जिले में ही था। शायद बड़ोपल गाँव में। संभवत: वे पैदा भी ननिहाल ही में हुए थे। लेकिन इस बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
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उप प्रधानमंत्री रहते ही उन्होंने हनुमानगढ़ जिले के सेमग्रस्त इलाकों का दौरा किया था। उस समय मैं भी रिपोर्टिंग के लिए साथ था। बड़ोपल के पास एक जगह वे एक ऊँचे टीले पर खड़े थे और उन्होंने देखा कि दूर एक आदमी भेड़-बकरियां चरा रहा है। उन्होंने किसी से इशारा करके कहा कि उसे बुलवाकर लाओ। वह व्यक्ति बुरी तरह भयभीत हो गया। सामने आया तो थोड़ा दूर से ही चौधरी साहब ने उसे नाम से पुकारा और कहा कि तुमने पहचाना कि मैं कौन हूं। तो उन्होंने बचपन अपना कोई नाम लिया और बताया कि हम साथ खेले हैं तो वह बूढ़ा आदमी झार-झार रो पड़ा। यह मेरे लिए भी भावुक कर देने वाला दृश्य था। चौधरी साहब कहीं भी हेलीकॉप्टर लेकर उतर लेते थे। किसी भी किसान की ढाणी में। क्या देश को उसके बाद कभी कोई ऐसा नेता मिला है? शायद भारतीय राजनीति ने एक स्वप्न देखा था।
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तेजाखेड़ा उनका गांव था, जहाँ से वे ऐसे उठे कि पूरे देश की राजनीति में छा गए। वे एक बेलाग़ इन्सान थे और उनकी पूरी जीवन यात्रा ही बेहद दिलचस्प रही है।
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मुझे याद है, एक समय ईमानदार और साहसिक पत्रकारिता के शिखर बने अरुण शौरी ने इंडियन एक्सप्रेस के फ्रंट पेज पर उन पर किस तरह हमला किया था; लेकिन यह बाद में खुला कि शौरी दरअसल आरएसएस और भाजपा के लिए काम कर रहे थे।
भारतीय पत्रकारिता का यह दु:खद पहलू है कि बहुत से पत्रकारों के चेहरों से नक़ाब तब उतरते हैं, जब पार्टियां सत्ता से प्रभावशाली पदों की बंदरबांट करने लगती हैं। किसी पत्रकार ने सच्ची पत्रकारिता की हो तो वह राजनेताओं की आँखों की किरकिरी बनेगा, न कि आँख का तारा।
अब भले शौरी साहब ने 'द न्यू आइकॉन : सावरकर एंड द फैक्ट्स' लिखकर अपने पुराने पापों का प्रायश्चित किया हो; लेकिन सच यह है कि विनिवेश मंत्रालय में उन्होंने जो किया और उससे पहले अंबेडकर जैसे महान् विचारक पर जो हमले किए, वे शायद बहुत से लोगों को याद नहीं हैं। शौरी साहब ने चौधरी देवीलाल की छवि को ऐसे समय नुकसान पहुंचाया था, जब वे लोकप्रियता के शिखर पर थे और देश की राजनीति कांग्रेस की अन्यायकारी नीतियों से दूर होकर एक नए विकल्प के क़रीब थी; लेकिन उस समय उस घालमेल भरे माहौल में आरएसएस इस पूरी प्रक्रिया को अपनी तरफ खींचने में लगा था। यह वह दौर था, जिसमें तेजतर्रार वामपंथियों की बुद्धि भी विभ्रमित हो गई थी और वे लोक केंद्रित राजनीति के बजाय उस राह को तैयार करने में जुट गए, जहाँ से सांप्रदायिक राजनीति का एक नया दौर शुरू होने जा रहा था। कालांतर में शौरी साहब विनिवेश मंत्री बने और देश के जाने कितने बहुमूल्य सार्वजनिक संस्थान पूंजीपतियों के हवाले कर दिए गए। औने-पौने दामों में। और नतीजा यह निकला कि जिनके लिए यह सब किया, वहाँ भी अपमानित ही किए गए। निजी जीवन में जाने कैसे-कैसे दु:खों से पीड़ित शौरी साहब के साथ जो हमविचार लोगों ने किया, वह उनकी हृदयहीनता और करुणाहीनता को साफ़ दिखाता है।
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पत्रकारिता को भले आज हमारे लोग गरिया रहे हाें कि वह गोदी मीडिया हो गई है; लेकिन सच बात तो ये है कि वह सत्ता की गोद में दिख तो अब रही है; लेकिन उसकी मुख्यधारा की मूल प्रवृत्ति तो शुरू से ही यही रही है।
भारतीय मीडिया गोद वाला ही रहा है। आमोद और प्रमोद वाला ही रहा है। इसीलिए आज़ादी के आंदोलन से पनपे ऐसे नेताओं को सम्मान हासिल नहीं करने दिया गया, जो इस देश की धूल-मिट्टी और पानी में घुलमिलकर बड़े हुए थे। ऐसे नेता, जिन्होंने जम्हूरियत की राह पर बहुत आगे कदम बढ़ाए थे। लेकिन देवीलाल पर मीडिया के हमले आम तौर पर उस आम नागरिक और आम किसान पर हमले थे, जिनके लिए चौधरी साहब ने सरकार में नई राहें बनाईं। चौधरी चरणसिंह को खलनायक बनाया या अंबेडकर के विचारों को स्पेस नहीं देना, इसी बात का तो हिस्सा थे। मुस्लिम नेताओं को दरकिनार करना और मुस्लिम या सिख बुद्धिजीवियों को हाशिए पर डालना इसी का नतीजा था।
आज एक सच तो ठीक से बाेला जाता है कि दलित मुख्यधारा में कहाँ है? लेकिन अगर यही सवाल किसान, मुसलमान या सिख को लेकर किया जाए तो लोेग बोलना ही नहीं चाहेंगे।
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आज जितनी भी लोककल्याणकारी और किसान हितैषी योजनाएं देश के चुनावी जंगल में झरना बनी हुई हैं, उनका मूल स्रोत चौधरी देवीलाल ही थे। किसानों की पेंशन की बात हो या फ़सलों का ख़राबा। वृद्धावस्था पेंशन हो या किसानों की फ़सलों का बीमा। उन्होंने सुदूर गांवों में जाकर विधवा महिलाओं तक से कहा कि तुम्हारी रक्षा तुम्हारा वोट करेगा। वोट की ताक़त का एहसास करवाना चौधरी साहब ने सिखाया था।
चौधरी साहब आज होते तो 111 के होते और हम जानते हैं कि इतना तो कोई जीता नहीं। साल 1914 में जन्मा यह नेता देश की सियासत का वटवृक्ष बना और बात का धनी। लेकिन उनके जीवन की यह गाथा भी कम दिलचस्प नहीं है। यह किसी तरह की झूठी कहानी है कि किसी छैले को राजनीति का रॉक स्टार बनाने के लिए उसके किस्से झूठे तौर पर गढ़े जाएं। ये खरे और सच्चे किस्से हैं।
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1936–37 में संयुक्त पंजाब के चुनाव में जब चौटाला के चौधरी लेखराम सिहाग ने चाहा कि छोटा बेटा विधायक बने तो उसकी उम्र डेढ़ साल कम निकली। उस समय आत्माराम को कांग्रेस का टिकट मिला; लेकिन जीत दिलाई छोटे लड़के देवीलाल ने। देवीलाल ने पूरे मन से प्रचार किया। जीत भी आई, फिर हाईकोर्ट ने चुनाव रद्द कर दिया। 1938 के उपचुनाव में टिकट बड़े भाई साहबराम को मिला, पर चुनाव की बागडोर उसी लड़के के कन्धों पर रही। यूनियनिस्ट पार्टी के परकोटे पर छोटूराम, खिज़र हयात तिवाना और सर सिकन्दर हयात खान जैसे दिग्गज तैनात थे; लेकिन जीत तो साहबराम को मिली; लेकिन दिलवाई देवीलाल नाम के उस नौजवान ने ही। और इस तरह वह लड़का रातोरात सियासत का सितारा बन गया।
चौधरी देवीलाल की उम्र हो चुकी थी, लेकिन 1946 में टिकट फिर बड़े भाई को मिला और जितवाने की जिम्मेदारी आई देवीलाल के हिस्से। आज़ादी आई। 1952 में सिरसा से कांग्रेस का टिकट उसी देवीलाल को मिला। दिल्ली में निर्णय हुआ; ख़बर सुनते ही वह जीप से गाँव निकला। गाँव की सरहद पर पहुँच कर पता चला कि पिता नहीं रहे। इच्छा थी कि पिता छोटे बेटे को विधायक बनते देखें। लेकिन यह संभव तो हुआ पर यह देखने के लिए पिता नहीं रहे। लड़के ने चुनाव जीता, पर ठिठुरन उसकी हड्डियों में उतर गई। यह विजय अब सिर्फ़ उसकी नहीं, पिता की स्मृति की भी थी। कौन सोचता था कि उस समय पहली बार चुनाव जीता यह लड़का एक दिन देश का इतना बड़ा नेता बनेगा।
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किसानों और गरीबों से उसका रिश्ता नमक और समुद्र जैसा था। वह जैसे नमक का दाना समुद्र से दूर था, पर भाषा वही। जुबान पर खार, आँखों में धूप और कदमों में आज़ादी की चाल। कभी आगे और कभी धूल। वह बड़े नेताओं की तरह किसी विदेशी विश्वविद्यालय का प्रोडक्ट नहीं था। वह आम लोगों के बीच आन्दोलन की पाठशाला से निकल कर आया एक ठेठ नेता था। जाने कितने ही बड़े-बड़े नेताओं को देवीलाल ने चुनाव में जीतने के लिए भरपूर पैसा दिया। यह अलग बात है कि बाद में उन लोगों ने ही चौधरी साहब से दगा किया। ऐसे बहुत से नेता थे। ऐसा नहीं है कि उनके सब काम और अंदाज़ आलोचनाओं से परे थे, लेकिन एक खेतीखड़ आदमी जिस तरह का होता है, वे वैसे ही बेलौस और एकदम खरे थे। चाँदी के सिक्के की तरह खनखनाते थे। उनके गले से निकलती ख़ास आवाज़ का कुछ मतलब होता था। वह नफ़रत की भाषा नहीं थी। वह हिन्दू मुसलमान नहीं करती थी। वह लोकलाज और लोकन्याय की बात करती थी।
वह बड़ा नेता था, लेकिन बनावटी और खोखला राष्ट्रवादी नहीं था। 1942 में जब भारत छोड़ो आन्दोलन देश भर में धधक रहा था, पंजाब में यूनियनिस्टों का साया था; कांग्रेस का असर कम। देवीलाल ने सिरसा तहसील के तीन थानों से हथियार लूटने का प्लान बनाया था और गाँववालों पर आफ़त की आशंका देख ड्रॉप कर दिया। दूसरी युक्ति बुनी चौटाला के पचास साथियों की टुकड़ी; सात-सात के दल भटिंडा से अलग-अलग ट्रेनों में बैठते, कुछ दूर जाकर चेन पुलिंग, भागते नहीं। गिरफ़्तारी अपनी, नेता का नाम सार्वजनिक: “देवीलाल।” पुलिस का पहिया घूमने लगा, नेता ज़मीन के भीतर, आन्दोलन ऊपर। जाँडवाड़ा की सभा में थानेदार पहुँचा; “भागूँगा नहीं, भाषण के बाद हाज़िर” कह कर बोलते रहे और फिर सामने बैठे एक विकलांग की लाठी उठी, और छह फुट दो इंच का पहाड़ लपट की तरह दौड़ा; सिपाही भागे, घोड़ा तैयार, कपड़े बदले, पुलिस दोस्त के पीछे, नेता हवा की तरह खेतों में।
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लंबाई के लिए अमिताभ बच्चन मशहूर हैं, लेकिन वे अमिताभ से कम लंबे नहीं थे। स्टेज पर खड़े होते थे तो अपने डायलॉग बोलते थे, किसी और लिखे नहीं। बताते हैं कि उनके भीतर की यह तपिश आज़ादी के आंदोलन से ही आई थी। पहली गिरफ़्तारी भी शर्त पर कि “इलाके के ग्यारह लोग अंगरेज़ी नीतियों के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी दें, तब मैं आत्मसमर्पण करूँ।” बारह लोगों ने गिरफ्तारी दी और ताऊ ने सिखाया कि क़ैद भी जनशक्ति का उत्सव बन सकती है। और जनशक्ति का यही उत्सव उन्होंने 1989 में तैयार किया। पूरे देश में न्याय युद्ध शुरू किया। लोगों तक पहुंचे। एक नोट और एक वोट का नारा।
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1977 में इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की आँधी चली तो हरियाणा में वे पहली बार मुख्यमंत्री बने। लेकिन सत्ता में जितनी रोशनी, उतनी छाया। 1979 में दिल्ली में मोरारजी-कैंप ने भजनलाल को आगे कर खेमेबन्दी की; देवीलाल सीधे प्रधानमंत्री के घर पहुँचे, “तुमने मेरी झोपड़ी में आग लगाई, तुम्हें महल में रहने नहीं दूँगा।” कुछ ही हफ़्तों में कुर्सी हिल गई; देश में चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने और लोकदल की नींव पड़ी। देवीलाल साथ। और आज अगर देवीलाल होते तो वे बताते कि प्रतिपक्ष की राजनीति करना क्या होता है? लोगों तक कैसे दस्तक दी जाती है। वे आरएसएस भाजपा वालों की राजनीतिक शैली का जैसा उपहास उड़ाया करते थे, आज हम उसे सामने देख रहे हैं। वे कहा करते थे, लोक से डरा हुआ नेता या तो डंडे ज्यादा रखता है या पंडे। और आज हम उस बात को देख ही रहे हैं।
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यह शायद 1982 की ही घटना थी, जब राजभवन की दहलीज़ पर उन्होंने लोकमर्यादा का पाठ पढ़ाया। लोकदल-बीजेपी गठबन्धन के 37, कांग्रेस 36 और सत्ता की चाबी 16 निर्दलीयों के हाथ थी। राज्यपाल जीडी तपासे ने बहुमत सिद्ध करने को बुलाया; देवीलाल 8 निर्दलीयों के समर्थन पत्र लेकर पहुँचे; सोमवार को “परेड” का वादा मिला। नेता अपने विधायकों को टूट-फूट से बचाने हिमाचल ले गए। लेकिन अगले ही दिन दिल्ली के हरियाणा भवन में भजनलाल को शपथ दिला दी गई। क्रोध की लपटें राजभवन तक पहुँचीं; तपासे से तीखी नोक-झोंक हुई; और देवीलाल ने तपासे की ठुड्डी पकड़ कर जो तमाचा मारा, उसकी अनुगूँज आज तक प्रतिध्वनित हो रही है। देश भर में आलोचना हुई, पर कोई कार्रवाई नहीं। यह प्रसंग जितना विवाद, उतना ही सत्ता-संरचनाओं के साथ देहाती स्वाभिमान की टकराहट को भी बताता है और यह भी बताता है कि हिन्दुस्तान में जिसके हाथ सत्ता आ जाती है, वह लोकमर्यादाएँ भूलकर बलबलाने लगता है।
लेकिन 1985 और 1987 के बीच के समय को देखें तो वह न्याय-युद्ध का समय था। राजीव गांधी ने अकाली दल से समझौते किए थे और चंडीगढ़, रावी-ब्यास जल-विवाद आदि के मुद्दे फिर हावी हो गए और हरियाणा में आक्रोश छा गया। देवीलाल समेत लोकदल के 18 विधायकों ने इस्तीफ़े देकर “न्याय-युद्ध” छेड़ दिया और 1987 में लोकदल 60 पर आया तो देवीलाल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। और उसी समय उसी दौर में तेजाखेड़ा फ़ार्म हाउस पर एक घरेलू कटाक्ष ने उन्हें एक नई जननीति बनाने की तरफ प्रेरित कर दिया। हरियाणा में पहली बार वृद्धावस्था पेंशन लागू हुई और यह देश में एक अनूठी मिसाल बनी। आज हम राजनीति में जितने भी तथाकथित लोककल्याणकारी चेहरों को देखते हैं, दरअसल, उसके पीछे का चेहरा एक ही है और वह है देवीलाल। देश में पहली बार 65 साल से ऊपर के हर बुज़ुर्ग के लिए ₹100 महीना पेंशन। बाद में यह विचार राष्ट्रीय नीति की धमनियों में पहुँचा और यहीं से लोककल्याण की बयार स्थायी हुई।
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जब दुपहरिया ताँबे-सी तपती है,
चप्पल की पट्टी के नीचे भी राजनीति जलती है :
तभी एक बुज़ुर्ग आवाज़ कहती है: “बिजली नहीं, इज़्ज़त पहले।”
और जब 1989–90 का समय आया तो वे प्रधानमंत्री पद की देहलीज़ पर थे; लेकिन शपथ ली “उप-प्रधानमंत्री” की। वह शायद एक दिसंबर, 1989 का दिन था और हम सब भी रेडियो पर कान लगाए और टीवी पर आँखें गड़ाए सब सुनने-देखने को उत्कंठित थे। अख़बारों में डूब रहते। संसद के सेंट्रल हॉल में जनता दल की बैठक हो रही थी। मधु दंडवते अध्यक्षता कर रहे। वीपी सिंह ने स्वयं देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा; चन्द्रशेखर ने समर्थन किया; देवीलाल संसदीय दल के नेता। हॉल में सन्नाटा; बाहर पत्रकारों में ख़बर कि “देवीलाल प्रधानमंत्री।” पर ओडिशा भवन में एक दिन पहले लिखी गई स्क्रिप्ट चल पड़ी और ताऊ उठे: “मुझे हरियाणा में ताऊ कहते हैं; मैं यहाँ भी ताऊ ही रहना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बनें।” नाट्य दृश्य अचानक पलटा; चन्द्रशेखर भड़के; गुस्से में बाहर निकले लेकिन दृश्य-पटल पर देवीलाल की प्रतिष्ठा और भी ऊँची हो गई।
उनके उपप्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाला किस्सा भी ग़ज़ब रहा। वह 2 दिसम्बर 1989 की बात है। राष्ट्रपति भवन का अशोक हॉल। वीपी सिंह ने शपथ ली; बारी आई चौधरी साहब की। उन्होंने “मंत्री” के स्थान पर “उपप्रधानमंत्री” कहा। राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने टोका, “मंत्री कहिए।” लेकिन ताऊ ने और ऊँची आवाज़ में वही दोहराया। तिहराया। राष्ट्रपति आर वेंकटरमन को चुप रहकर आगे बढ़ जाना पड़ा। बाद में सरकार ने स्पष्ट किया, संविधान में ऐसे पद का उल्लेख नहीं, यह डिस्क्रिप्टिव विशेषण है; विधिक हैसियत “मंत्री” ही। पर इतिहास ने नोट कर लिया कि भारत में “उप-प्रधानमंत्री” पद की शपथ बोलकर लेने वाले अकेले व्यक्ति चौधरी देवीलाल ही हैं।
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यह चौधरी देवीलाल ही थे, जिन्होंने सिखाया कि
कुर्सी एक पेड़ की छाया है। चलते रहो तो साथ चलती है,
रुक जाओ तो छोटी पड़ जाती है।
कुर्सी हल भी है और कोड़ा भी।
इस पर बैठने वाला किसान का हमदर्द हो तो किसान निहाल हो जाता है
और वह क्रूर हो तो जनता की पीठ पर कोड़े बरसते रहते हैं।
आदमी बड़ा हो, तभी छाया का अर्थ समझ आता है।
उनके कंधे पर हमेशा ही लोकशक्ति की लाठी और आँखों में गाँव की मर्यादा रही। वे सत्ता में गाँव की धूल लेकर आए थे और उसकी उन्होंने मर्यादा रखी। हमारे देश में बहुत से नेता ग़रीब परिवारों से आते हैं; लेकिन सत्ता में शीर्ष पर पहुँचते हैं तो उस अमीरी के हितों के लिए काम करने में छुट्टी तक नहीं लेते, जो ग़ुरबत का मूल कारण होती है। लेकिन देवीलाल तो देवीलाल थे। उन्होंने लोकमर्यादाअेां के लिए ही काम किया।
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दो बार हरियाणा के मुख्यमंत्री, दो बार देश के उपप्रधानमंत्री रहे, पर उनकी असली पूँजी उपलब्धियों की सूचियाँ नहीं थीं; वह विश्वास था, जो गाँव की हवा की तरह चलता है। “नेता हमारे बीच से है, किसी दूर के गुंबद से नहीं।” 2001 में जब वे विदा हुए तब तक भारत उदारीकरण के नए देवताओं में डूब चुका था; पर गाँव की चौपाल में “ताऊ” की आवाज़ आज भी सरसों के पीले फूलों की महक लेकर आज भी गूँजती है। डाँटती भी है, दुलराती भी और लड़ना भी सिखाती है।
आख़िर में धरती ने उनकी लाठी अपने पास रख ली और हवा ने उनकी हँसी को पीले फूलों में बाँट दिया। मानो यह कहते हुए कि लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है, बस मौसम बदला है!
लेकिन यह कितने दु:ख की बात है कि इतने बड़े नेता की आज तक बेहतरीन बायोग्रैफी तक नहीं लिखी जा सकी है।
पत्रकार श्री त्रिभुवन जी द्वारा आज लिखा गया है।
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